जब से उनसे अना हो गयी,
जिन्दगी समझो तन्हा हो गयी ।।
यूँ तो महकी थी गुलाब सी,
अब शूल सी काँटों में फना हो गयी ।।
लबरेज थी सुहागिन की चादर सी,
विधवा मानिन्द रँग विहीन हो गयी ।।
प्रभात की किरण सरीखे जो थे सपने,
काले ज़र्द सालिख रात अमावस हो गयी ।।
यूँ तो साहिल थे दोनों शिक्षा की कश्ती पर,
अज्ञान से ज्ञान की नैया तार-तार हो गयी ।।
लावा था चन्द लम्हों के सुख के भरम का,
दहेज की अग्न या रुग्न में शिकन हो गयी ।।
दोनों अना में अना करते गये,
ना समझी थी दोनों की जिन्दगी फना हो गयी ।।