तलब-ऐ-मेहनत की मोहब्बत में,
जिन्दगी बेकार हुई,
हम रह गए मजदूरी करते,
और वो सरकार हुई,
जिन्दगी गुजार दी,
मेहनत करते करते जिसके लिए,
आज वो छत, दाल और रोटी,
बूते के भी बाहर हुई,
जिन्दगी का अच्छा शिफा दिया,
मेरी सरकारो ने,
पढ़े लिखे कुशल मजदूर भये,
और निरक्षर नेताओ की सरकार हुई,
मजदूर दिन रात एक कर,
सपने सजाता रहा,
जो कर्जदार रहा माह भर,
आज फैक्ट्री दो से चार हुई,
पूँजीवाद और सिफारिशों के दौर में,
आज मजदूर पिस गया,
जिन्दगी की खातिर (बेटे की),
ताउम्र की पगार नीलाम भरे बाजार हुयी ।।