प्रीत न होती जग में क्या हो जाता,
ना बनते मीत जग सूना हो जाता।
या विश्वदेव कुटम्बकम का नारा सार्थक हो जाता,
प्रीत ना होती जग मे क्या हो जाता।।
ना बंधते बंधन कसमों के,
प्यार वफा जैसे शब्दों के,
ना तडपन होती मन में,
ना धड़कन बढ़ती दिल में,
ना होती जग में हँसाई,
ना होती कोई रूसवाई,
ना बनती कोई बातें,
ना होते रिश्तों के धागे,
ना होता सजना संवरना,
ना होता बनना बिगड़ना,
ना दिल में चाहत होती,
ममता भी ना होती सीनों में,
निर्जीव सी दुनिया होती,
पर जीवन सजीव हो जाता,
निर्जीव दुनिया में अपना सपना हो जाता,
क्योंकि ना मतलब होता मतलब का,
जो होता तेरा वो मेरा हो जाता,
ना कोई कहता मेरा सब सबका हो जाता,
ना होता फसाद धर्म नाम पर,
जाति होती बस मानव नाम पर,
ना होता सीमा का अतिक्रमण,
स्वछन्द होता विश्व भ्रमण,
होती सबको एक ही आशा,
सब समझते प्यार की भाषा,
नादान भी जग में जी पाता,
सपना है अपना सार्थक हो जाता,
ना बनते मीत जग सूना हो जाता।
या विश्वदेव कुटम्बकम का नारा सार्थक हो जाता,
प्रीत ना होती जग मे क्या हो जाता।।
शनिवार, 30 अगस्त 2014
प्रीत ना होती जग में ३० अगस्त २०१४
गुरुवार, 28 अगस्त 2014
इलाज चाहिए २८ अगस्त २०१४
दिल की बीमारी है,इलाज चाहिए,
जहान मे रहे जान तो एक जान चाहिए।।
उम्र का तकाजा है इस रोग का गुण,
निदान के लिए मेहमान नया चाहिए।।
तलाशती है निगाहें हर चेहरा बने कोई हमराह,
सूरत के साथ सीरत की जुगलबन्दी चाहिए।।
नेमत है खुदा का प्यार अगर दे बख्सीस,
रहमतों की दरकार है कोई एक नज़र चाहिए।।
नासाज है सावन का हर एक पल बूँद के बिना,
पपीहा है आज दिल जो बुझे प्यास बरसात चाहिए।।
तडपन मिट जाये मन की धड़कन बनकर,
इजहार बन जाये इलाज वो दवा चाहिए।।
मंगलवार, 26 अगस्त 2014
बेगाना २७ अगस्त २०१४
रहा अपनों की शादी में अब्दुल्ला दीवाना,
ना मैंने जाना किसी को ना किसी ने मुझे पहचाना।।
ये दुनिया है मेरे लिए उलझी एक कहानी,
मै तो हूँ नादान ना समझी दुनिया ने नादानी,
हजारों मुसीबतें है राहों मे हर राह से मै अनजाना,
ना मैंने जाना किसी को ना किसी ने मुझे पहचाना।।
कल जो मेरे अपने थे जो मेरे सपने थे,
था मै भी उनका वो माला मेरी जपते थे,
आज नहीं वो जानते कौन हूँ उनके लिये मै अनजाना,
ना मैंने जाना किसी को ना किसी ने मुझे पहचाना।।
यहाँ हर जर्रा है धोखा ये दुनिया है मतलब की,
ना रख चाहत किसी से किसको पडी है तेरे गुरबत की,
जीना है मान से सम्मान से तो खुद है सम्मान बचाना,
ना मैंने जाना किसी को ना किसी ने मुझे पहचाना।।
रविवार, 24 अगस्त 2014
मेरे मित्र २३ अगस्त २०१४
कुछ मित्रों ने हाथ बढा़या और छोड़ दिया,
संदेश दिया ओर लिया और बात करना छोड़ दिया,
यूँ तो मिलते है राह में कई हम नशीं,
जाने आपमें क्या देखा हमने आप लगी अपनी सी।
आप को देखा तो ख्वाब संजो लिए,
ख्वाब में हमको मिली दीवानगी आप साथ हो लिए,
ख्वाब में ही जिंदगी के बीज बो लिए,
ना कि बात जब साथी ने हम भी चुप हो लिए,
कर हिम्मत फिर से बात कि कोशिश के लिए,
आखों से जरिये बात के लिये इशारे हो लिए ,
इशारों ही इशारों मे मुलाकात का तय समय कर लिया,
सपने मे तो अच्छा था तय कर हकीकत मे ऐतबार कर लिया,
उठा जो सपने से हकीकत से मुलाकात हो गयी,
सोची भी ना थी जो उनसे वही बात हो गयी,
मुँह फेरकर चले जब वो ख्वाब सा अहसास करा दिया,
जज्बातों को रखना संभाल कर दुनिया है मतलब की बता दिया।
कुछ मित्रों ने हाथ बढा़या और छोड़ दिया,
संदेश दिया ओर लिया और बात करना छोड़ दिया,
बुधवार, 20 अगस्त 2014
अपने या परायें २१ अगस्त २०१४
रोयें जब भी हम वो मन ही मन हर्षायें,
खुशी मनाई इतनी अन्दर ही अन्दर,
जैसे दिये दिवाली के हो जलायें।।
हमने की शिद्दत सदा जिनके लिये,
गहरे खरीदे जख्म़ उन्होंने हमारे लिये,
शायद थी कसम खायी रहेंगे खाक में मिलाये।।
रही बन्दगी उनकी हमसे ऐसी,
जीवन जिन पर वार दिया,
ना समझ पायें कि वो अपने थे या पराये।।
भूल थी शायद हमारी या वफा की,
बेबिन्हा दुश्मनी ली उनसे जो थे पराये,
जफा़ वफा के फेर मे रह गए छले छले।।
नातकुल्लफी थी हमारी उनसे ऐसी,
ना जाने दिल में हमारे उनके लिये बात थी कैसी,
था संबंध खून का जिनसे वो ही निकले पराये।।
सोमवार, 18 अगस्त 2014
दोस्ती १९ अगस्त २०१४
दोस्त से है ईद दोस्त से दिवाली,
दोस्त से है होली का त्योंहार,
ना महक हो पास दोस्ती की,
तो सब कुछ है बेकार।।
दोस्ती का फूल है सबसे अच्छा,
जो जीवन में खिल जाये,
जीवन हो जाये फूल कि बगिया,
महक चारों ओर बिखर जाये।।
दोस्ती होती है जब मिलते है मन से मन,
तन रहते है दो पर एक हो जाते है मन,
भीड़ पडे जब एक पर विचलित हो दूसरा जाये,
वज्र पडे चाहे जितना पर खुद पर दिल न दोस्त का दुखने पायें।।
दोस्ती सम्बन्ध है प्रेम भाव का,
जो एक बार हो जायें,
है दोस्त वही अच्छा जो,
राह दिखाये आपको,सही गलत मे भेद कराये।।
वह दोस्त दोस्त नहि हो सकता है,
मतलब से हाँ मे हाँ करता है,
वो दोस्ती क्या खाक करेगा,
जो जन - धन पर नजर रखता है।।
सहायता २२ फरवरी २०१४
मत बनो रहबर किसी का,
यहाँ सब मतलब रखते है,
निकल जाये हाथ उसका,
फिर कोई नही है किसी का।
जमाना है खुदगर्जी का,
कोई नहीं है किसी का,
स्वार्थ की सरपरस्ती है,
नाम है सेवादारीं का,
भाई,बहन,बन्धु,सखा,
सब रिश्ते है मतलब के,
मतलब है जबतक उनका,
जुँबा पर हर वक्त नाम उन्हीं का,
मतलब निकल जाते ही,
शेष नहीं कुछ रह जाता,
बन जाती है जिंदगी फसाना,
बस लांछन ही उसमें रह जाता,
मत बनो रहबर किसी का,
यहाँ सब मतलब रखते है,
निकल जाये हाथ उसका,
फिर कोई नही है किसी का।
कापीराईट अधिकार सुरक्षित-
रचियता - पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
व्यथा संरक्षक की ०२ अगस्त २०१४
यह पंक्तियां एक संरक्षक की जीवन व्यथा है जो एक बेटा-बेटी को पालता है और उनके वयक्तिगत हठ जिसमें उनकी अपनी भविष्यमयी हानि है से वयथित होकर उनको अपनो से अलग करता है :-
सुमन, सुमन नहीं हैं उस उपवन का,
सीँचाँ है जिसे जिस माली ने,
मौजूँ नहीं सुमन, माली के उस उपवन का।
सोच-सोच पौध जमाया था,
वृक्ष बन सुमन खिलेगा उपवन में,
मन ही मन हर्षाया था,
हर्षयोग बनाने को पौध को सींचाँ,
रोप-रोप पौध एक स्वप्न खींचा,
स्वप्न के अलग-अलग रोप की सोंच को खींचा,
खींच-खींच स्वप्न सोच,मन उलसाया था,
हर्षयोग बना वियोग, जब पौध अकुलाया है,
अकुलायित पौध ने नया रूप आज दिखलाया है,
खिला सुमन मिला नहीं माली को,
सुमन मन हर्षित है पूजा में अर्पण को,
क्रमबद्ध है आज सुमन पूजा के तर्पण को,
तर्पण के अर्पण की माला है चढ़ने को बलिवेदी पर,
है वेदना माली की आज यहीं,
बलिवेदी पर आज सुमन, अन्यत्र की वेदी के,
व्यथित मन माली है, उपवन से मुख मोड़ लिया,
रोपा था जिस पौधे को सुमन की खातिर,
आज हर नाता उससे तोड़ दिया,
सुमन गया उपवन हुआ पराया,
आज साथ नहीं माली से उपवन का।
संघर्ष बच्चे का ०३ अगस्त २०१४
मेरी यह पंक्तियां उस बच्चे पर आधारित हैं जो बचपन से ही प्यार,दुलार,धन और व्यवस्था व विश्वास के अभाव में रहा है किन्तु हिम्मत नहीं हारता और अपनी जिंदगी को समकक्ष समाज के साथ चलाने के लिए संघर्षरत हैं।
जीवन है एक डगरिया बस चलते ही जाना है,
डगर दूर सही, मगर मजबूर नहीं हम मंजिल को पाना है।।
राह अंधेरी रात घनेरी दीपक लौ नहीं दिखती,
साया न हो साथ तो क्या सपनों को पाना है,
डगर दूर सही, मगर मजबूर नहीं हम मंजिल को पाना है। (१)
काँटे है बिछे जिन राहों में, जंगल भी घनेरा है,
जंगल भी बचाना है और फूलों को सजाना है,
डगर दूर सही, मगर मजबूर नहीं हम मंजिल को पाना है। (२)
हूँ अकेला भले ही, भले ही राह पथरीली हों,
जवानी हो तराना तो क्या, बचपन से ही बचपन को बचाना हैं,
डगर दूर सही, मगर मजबूर नहीं हम मंजिल को पाना है। (३)
जीवन कर्म है चाकरी, चाकरी सुलभ नहीं होती,
अंश के निज बचपन कि खातिर कर्म करते ही जाना हैं,
डगर दूर सही, मगर मजबूर नहीं हम मंजिल को पाना है। (४)
कापीराईट अधिकार सुरक्षित :- पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
उद्गार सामाजिक चोट से ०४ अगस्त २०१४
मेरी यह पंक्तियां आजकल विभिन्न जगहों पर हो रहे दंगे फसाद से पहुँच रही सामाजिक चोट का उद् गार है :-
खतरे में हैं आजाद ये भारत, हाय ये कैसी बीमारी,
मानवता हुई दागदार और इंसान हुआ स्वार्थी।।
आलोचक हूँ उन शब्दों का,जो अर्थ लिये हो द्विअर्थी,
बाहर से तो रोशन चेहरा,अन्दर से है मुर्दापरस्ती।१।
भीड़ भरी जनता में,अपनो को खोजता है,
है क्यों परेशान अपनो के लिये,अपने ही तो है घाती।२।
अपने ही हैं जो, अपनो को बाँट रहे,
जाति और धर्म पर अपनो को छाँट रहें।३।
एक जर्रे लालच कि खातिर गिरा है मानव आज,
इंसानियत हुई बदनाम और खत्म हुई इंसान परस्ति।४।
जेब और जेग कि खातिर, जोकि बन गया है,
चूसता है खून अपनो का, मानवता कर दी सस्ती।५।
मानवता हुई दागदार और इंसान हुआ स्वार्थी।।
कापीराईट अधिकार सुरक्षित :- पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
अभिव्यक्ति ०५ अगस्त २०१४
मेरी ये पंक्तियां ऐसे व्यक्ति के हालात का चित्रण करती है जो अपनो का सताया हुआ है और विवश हैं :-
कैसे लिखूँ, कैसे लिखूँ आदि और अन्त कहानी के।
जिंदगी एक कहानी है जिंदगानी के सफर की,
कैसे लिखूँ,कैसे लिखूँ आदि और अन्त कहानी के।।
किस्से लम्बे है ये तेरी मेरी कहानी के,
सोचता हूँ जब बैठकर लिखने को हाल-ए-ब्याँ,
शब्द मिलते नहीं लिखने को सफर में,
कैसे लिखूँ,कैसे लिखूँ आदि और अन्त कहानी के।।
रिश्ते जो बनाये खुदा ने खून से जोड़कर,
अच्छे निभायें अपनों ने वक्त पर मुँह मोड़कर,
बन्धन तोड़ दिये सारे खून कि निशानी के।।
कैसे लिखूँ,कैसे लिखूँ आदि और अन्त कहानी के।।
अपनो ने किया गिल्टी जिसे,गैरों ने सराहा है,
जब ठुकराया अपनों ने परायों ने दिया सहारा है,
बस आज वहीं है अपने कल थे जो पराये मेरी कहानी से।।
कैसे लिखूँ,कैसे लिखूँ आदि और अन्त कहानी के।।
मुफलिसी में जी लि जिंदगी अपनों के लिये,
ना रहे घर रहे दर बदर बनाने को विरासत,
जब अपनों ने कि सियासत पन्ने खत्म हुए कहानी के।।
कैसे लिखूँ,कैसे लिखूँ आदि और अन्त कहानी के।।
कापीराईट अधिकार सुरक्षित :- पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
प्यार के भाव ६ अगस्त २०१४
मेरी यह पंक्तियां एक नवयुवक के उस प्यार के इजहार को इंगित करती है जो अपने प्यार के साथ जिंदगी बिताना चाहता है:-
मुझे मेरे यार प्यार चाहिए,
जिंदगी कर दी तेरे हवाले, बस तेरा ऐतबार चाहिए।
मैंने बितायें है दिन कई सौ तेरी चाह में,
हर पल रहता हूँ खोया-खोया तेरी राह में,
एक पल नजर तू आ जाये और क्या चाहिए।
मुझे मेरे यार प्यार चाहिए।१।
जब से देखा है मैंने तुझको ए दीदार-ए-सनम,
आस तकता हूँ मैं तेरी होगा तेरा करम,
चकोर को मिल जायें चाँद,उसे ओर क्या चाहिए।
मुझे मेरे यार प्यार चाहिए।२।
चाहता हूँ चलना तेरे साथ मेरे हमदम,
अकेला हूँ जिंदगी के सफर में,ना उठते कदम,
अगर साथ हो जायें तेरा मेरे हमनवाँ और क्या चाहिए।
मुझे मेरे यार प्यार चाहिए।३।
दर्शं हो तेरा हर शाम और सवेरे,
बन्धन में बँध जायें कोई हो ऐसा इल्म,
साथ हो जायें तेरे फेरे साथ और क्या चाहिए।
मुझे मेरे यार प्यार चाहिए।४।
कापीराईट सर्वाधिकार सुरक्षित :- पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
रविवार, 17 अगस्त 2014
गद्दार १७ अगस्त २०१४
यह पंक्तियां मैने कल जब समाचार पत्र मे मेरठ से आई.एस.आई एजेंट आसिफ अली के पकडे जाने के साथ जब सेना के दो अधिकारी के भी संलिप्त होने कि खबर छपी तो मन बहुत व्यथित हुआ और जो महसूस हुआ वो उद्गार मैंने पंक्तिबद्ध करने कि कोशिश की है :-
कौन कहता है नीति थी दुश्मन कि,
जिसके हम शिकार हुये।
हम हुये बरबाद अपनों के हाथों,
गद्दारों से लाचार हुये।।
इतिहास उठा लो महाभारत का,
चक्रवर्ती सम्राट हुए जो,
उनकी गाथा गौरव का,
खेल जुआ अर्धनग्न नारी करवा ली,
वो भी अपनो के हाथों लाचार हुये,
वो हारे जरूर शकुनि की चालों से,
वो भी हुए बरबाद भाई के हाथों,
अपनो कि गद्दारी से लाचार हुये।
कौन कहता है नीति थी दुश्मन कि,
जिसके हम शिकार हुये।
हम हुये बरबाद अपनों के हाथों,
गद्दारों से लाचार हुये।।
अब देखों गाथा पृथ्वीराज चौहान की,
दिल्ली के हार-जीत के सुल्तान की,
नारी के प्यार में विवश हुआ जो,
भोग विलास में व्यस्त हुआ वो,
हारा गौरी के हाथों चौहान,
हाथ डाल हथियार दिये,
मान गया,मान लिया जयचन्द ने,
कि गद्दारी कैसे-कैसे व्यभिचार हुये।
कौन कहता है नीति थी दुश्मन कि,
जिसके हम शिकार हुये।
हम हुये बरबाद अपनों के हाथों,
गद्दारों से लाचार हुये।।
आओ चल देखें अब,
झाँसी के दरबारों को,
रानी थी वो वीरांगना थी,
मर्द से बडी मर्दानी वो,
दिया मुँह तोड़ उत्तर उसने,
जब डलहौजी हर्षाया था,
लिया संभाल मोर्चा और,
किले में पैठ किया,
हार गयी अपनों से ही,
जब दिया फाटक खोल अपनो ने,
बिना किये रण अपनो ने,
ऐसा घातक वार दिये,
कौन कहता है नीति थी दुश्मन कि,
जिसके हम शिकार हुये।
हम हुये बरबाद अपनों के हाथों,
गद्दारों से लाचार हुये।।
ये धरती है शूरवीरों की,
चन्द्रशेखर जैसे हीरो की,
आजाद है,आजाद मरेगें,
ऐसा कह आजाद गये,
गोली खायी नहीं अंग्रेजों से,
अपने ही हाथों शहीद हुये,
पकड़ नही सकते थे फिरंगी,
अपनो कि गद्दारी से लाचार हुये,
खुद कि सेवा खुद कर ली,
और फिर प्राण त्याग दिये,
कौन कहता है नीति थी दुश्मन कि,
जिसके हम शिकार हुये।
हम हुये बरबाद अपनों के हाथों,
गद्दारों से लाचार हुये।।
भारत का आकंठ जब भी डूबा,
डूबा आस्तीन के साँपों से,
रावण मरा नही राम से,
हार गया विभीषण के घातों से,
दुश्मन तो प्रत्यक्ष दिखता है,
हाथों में हथियार लिये,
देशद्रोही है वो जो,
जिनके आंतकी विचार हुये,
संभलकर रहना घाती पीछे है,
ये जो अपने ही गद्दार हुये।
कौन कहता है नीति थी दुश्मन कि,
जिसके हम शिकार हुये।
हम हुये बरबाद अपनों के हाथों,
गद्दारों से लाचार हुये।।
शनिवार, 16 अगस्त 2014
कृष्ण जन्माष्टमी १७ अगस्त २०१४
कृष्ण तेरे राज की बात अलग है।
आज के समाज की सौगात अलग है।।
तेरे राज में नदी दूध की बहती थी,
खाने पीने नहीं कमी किसी को रहती थी,
मक्खन चोरी की तुमने वो बात अलग है,
गोबरधन पूजा कर गऊ मान बढाया,
कृष्ण तेरे राज की ये सौगात अलग है।।
करने को कृषि आज भी गौधन की जरूरत है,
बैलों के कन्धे जब तक रहती जान,
और दूध - पूत गौ के जरूरत कि पूरक है,
तब तक खूब होती है सेवा वो बात अलग है,
ढलती उम्र देख फिर विक्रय कर दिया,
अब कटता देखकर क्यों आतीं शर्म है,
आज के समाज की सौगात अलग है।।
ना सहा अत्याचार सम्बन्धी तक दिये मार,
तूने ऐसा किया व्यवहार जनता की खातिर,
राधा हुई बलिहार तेरे प्यार कि खातिर,
रूकमण बनी गले का हार वो बात अलग है,
कर्म कर निस्वार्थ भाव से मर्म तुमने बतलाया,
रच डाला रणक्षेत्र अर्जुन ने सुन गीता ज्ञान,
कृष्ण तेरे ज्ञान की वो बात अलग है।।
आज युवकों ने परमार्थ करना छोड़ दिया,
रणक्षेत्र सजा है आज भी, सार कि बात करना छोड़ दिया,
भावकों ने अभिभावकों से शिष्टाचार करना छोड़ दिया,
हर गली,नुक्कड़,चौराहे पर कृष्ण खड़ा है,
जेब पर बलिहार है राधा प्यार करना छोड़ दिया,
बाद इसके भी अपवाद है कुछ वो बात अलग है।।
युवकों व युवतियों और आज के आकाओं सुनो,
मना रहे उत्सव जिस कृष्ण के जन्म का,
रखो उस कृष्ण की नीति ज्ञान का ध्यान,
कुलश्रेष्ठ बनो विशेष्ठ बनो भारत बने महान,
बन कर्मयोगी इस तरह कुछ करना अलग हैं।।
शुक्रवार, 15 अगस्त 2014
शासक हुआ धृतराष्ट्र, ०७ अगस्त २०१४
शासक हुआ धृतराष्ट्र,काज मशीनरी सो रही।
अत्याचार के बढ़ते जंगल से जनता सारी रो रही।।
राजकी लूट खसोट से तस्त्र जो ऊबी जनता,
बदला निजाम सुशासन को,अब कुशासन से डूब रही।
शासक हुआ धृतराष्ट्र,काज मशीनरी सो रही।
अत्याचार के बढ़ते जंगल से जनता सारी रो रही।।१।।
नवयौवन के सब्जबाग से विकास स्वप्न दिखलाया था,
विकास हुआ ना विश्वास रहा ना जनता की फूल साँस रही।
शासक हुआ धृतराष्ट्र,काज मशीनरी सो रही।
अत्याचार के बढ़ते जंगल से जनता सारी रो रही।।२।।
अपराधी युक्त है (राज्य) अपराधी मुक्त है हर चौराहा नीलाम हुआ,
शासन प्रशासन हुआ विफल,आज ये नगरी देख रही।
शासक हुआ धृतराष्ट्र,काज मशीनरी सो रही।
अत्याचार के बढ़ते जंगल से जनता सारी रो रही।।३।।
न आयें अस्मत पे दाग कहीं,किसी खिड़की किसी झरोके से,
ना निकलूँ आज बचे लाज आँगन में हर बहना ये सोच रही।
शासक हुआ धृतराष्ट्र,काज मशीनरी सो रही।
अत्याचार के बढ़ते जंगल से जनता सारी रो रही।।४।।
लोकतंत्र के प्रहरी बनकर जो बैठे हैं समाजवाद के संरक्षक,
चुनौती हैं दुःशासन कि आज आपको पुकार रही।
शासक हुआ धृतराष्ट्र,काज मशीनरी सो रही।
अत्याचार के बढ़ते जंगल से जनता सारी रो रही।।५।।
कृष्ण के वंशज कहलाते हो,हर अबला की धीर धरो,
ना उतरे अब चीर चरित्र का हर द्रोपदी पुकार रहीं।।
शासक हुआ धृतराष्ट्र,काज मशीनरी सो रही।
अत्याचार के बढ़ते जंगल से जनता सारी रो रही।।६।।
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पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
रक्षा बंधन १० अगस्त २०१४
धागे से बाँधने डोर प्रीत कि राखी लाई रे मेरी, देखों रे बहना आई।।
त्योंहार है ये जो रक्षा बन्धन का,बहन-भाई के पवित्र सम्बन्ध का,
बन्धन के उस प्रीत कि रीत निभाने आई रे,देखों रे बहना आई रे।
देखों रे देखों आई रे बहना मेरी, देखों रे बहना आई रे।
धागे से बाँधने डोर प्रीत कि राखी लाई रे मेरी, देखों रे बहना आई।।
धागे का ये बन्धन है सबसे न्यारा,जिस पर है भाई बलिहारा,
बलिहार पर प्यार के हार चढा़ने आई रे,देखो रे बहना आई रे।
देखों रे देखों आई रे बहना मेरी, देखों रे बहना आई रे।
धागे से बाँधने डोर प्रीत कि राखी लाई रे मेरी, देखों रे बहना आई।।
देवतुल्य है आज भाई बहना कि आखों का तारा,
आखों में लिये किरण प्यार कि बहना मेरी आई रे,देखों रे बहना आई रे।
देखों रे देखों आई रे बहना मेरी, देखों रे बहना आई रे।
धागे से बाँधने डोर प्रीत कि राखी लाई रे मेरी, देखों रे बहना आई।।
राखी का एक-एक धागा, है कसम एक-एक रक्षासूत्र का,
सूत्र में गुनित एक-एक भाव कि याद दिलाने आई रे।
देखों रे देखों आई रे बहना मेरी, देखों रे बहना आई रे।
धागे से बाँधने डोर प्रीत कि राखी लाई रे मेरी, देखों रे बहना आई।।
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पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
संध्या १३ अगस्त २०१४
बे वजह अपनो को भी रुला देते है,
जो चिराग रात भर रौशनी देता है,
सुबह होते ही लोग उसे भी बुझा देतेहै।
संध्या समय है घटा है छायी घनघोर,
विस्मित आँखें निहार रहीं प्रीत के मन मोर,
आ जाओ तुम अगर, शाम सुहानी हो जाये,
मन हो शीतल - शीतल और नयन विश्राम हो जाये।।
पलके निहारती थक गयी रास्ता चहुँ ओर,
बादल भी बरस कर चले गये बरस बरस घनघोर,
यादों कि बारात लिये दूल्हा हूँ मै तेरा,
दुल्हन हो मेरे दिल की हर वक्त जुबां पर नाम है तेरा।
नादान १३ अगस्त २०१४
नादान हूँ मानता हूँ पर इतना भी नादाँ मत समझ,
मै गिर जाऊँ अपने आप अपनी नजरों मे,
और गुमान मे तुम आ जाओ।
तुम समझो कि मै चल नहीं सकता,
वो तो मै राह पर गलत था अच्छा हुआ ठोकर लगी,
अब उठ गया हूँ संभल जाऊंगा,
कहीं ऐसा ना हो कारवाँ निकल जायें,
गिरो तुम अगर और साथ न रहे कोई,
और तुम उठ भी ना पाओं।
ये चमन है रैन बसेरा १४ अगस्त २०१४
मत फैलाओ देश मे दंगा रहने दो,
बाँट रहे धरती को तुम कि आसमाँ की तैयारी है,
इंसान तो तुम बन ना पाये क्या खुदा बनने की तैयारी है।
इंसाँ-इंसाँ मे करके भेद,खून-खून को अलग किया,
धर्म जाति में तौलकर मानवता को तंग किया ।
ये मानवता की बातें तुमसे अच्छी नहीं लगती,
देशभक्त को आराम कहाँ उनकों कुर्सी नहीं जँचती,
सियासतदाँ हो कुर्सी के अब तुम भी,
अब शिक्षा कि बातें तुमसे अच्छी नहीं लगती।
भूल चुके हो तुम उन शहीदों को,
गवाँ जिन्होंने आजादी मे प्राण दिये,
सियासत करते हो पता है कल तुम्हारी बारी है।
इसलिये ही देकर भारत रत्न अब उनका सम्मान किये।
नमन करो उनको तो करो दिल से वरन् क्या लाचारी है,
आसमाँ से ऊँचा नाम है जिनका उन्होंने कब ये सोचा था,
भारत रत्न से कहीं ऊँची ही कीमत उनके समर्पण की,
उनके नाम पर ना करो सियासत,क्या अब उन्हें भी बाँटने की तैयारी है।
अरे अद्यः समय के सियासतदारों अबतो कुछ शर्म करो,
जाति भेद और धर्म कि राजनीति अब खत्म करो,
डूबा सूरज निकले देर से दूर होता है सवेरा,
निकला सूरज सबका होता एकक ये ना तेरा ना ये मेरा ।
नया युग नई उमंग है नव आशा है नवयुवकों की,
विश्व के अग्रज बन चमके,ये तिरंगा है मेरा,
ना ये तेरा ना ये मेरा ये चमन है रैन बसेरा,
हर धर्म से नाता है चाहे वो तेरा हो या फिर मेरा।
कापीराईट सर्वाधिकार सुरक्षित :-
आपका स्नेह आकांक्षी - पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"
१५ अगस्त २०१४
पढी़ जो आजादी कि कहानियां,
लिखी किताबों मे थी जो इस कदर,
बोस,घोष,लाल,बाल,पाल और,
भगत सिँह मतवाले अपने आप थे,
इंसाँ थे फरिश्ते थे या अंग्रेजों के बाप थे,
रच डाला इतिहास जिन्होंने हवन कुंड में,
आजादी के,जीवन की आहुति देकर,
इंकलाब,अंग्रेजों भारत छोडों,
नारा दिया और दिया वन्देमातरम्,
आजादी का पर्व दिया जिन्होंने,
ऐसे शूर वीरों को करूँ नमन,
गाथा जितनी पढ़ता हूँ आजादी कि,
कायल होता जाता उनकी भक्ति का,
गौरव है जन्म लिया भारत भूमि पर,
और हिन्दुस्ताँ है हम वतन-हम वतन,
और शनैः शनैः इस कदर होता असर,
करता हूँ नमन जो मुख से निकलता है जय हिन्द,
उठाता हूँ कलम जब भी लिखने को,
लिखा जाता है केवल वन्देमातरम् वन्देमातरम् ।।
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पुष्पेन्द्र सिँह मलिक "नादान"