बुधवार, 3 सितंबर 2014

अपनी व्यथा ०४ सितम्बर २०१४

कहाँ गए वो सपने सुहाने,
जिनको बुना था मैने ख्यालों मे।
बचपन तो बचपन होता है सुना था,
सब ज्ञान बोध से अनजाना,
प्यार-दुलार था सब कुछ जिसका खजाना,
ना मिला खजाना रहा अनजाना सबसे,
कहाँ गए वो सपने सुहाने,
जिनको बुना था मैने ख्यालों मे।
अब हुआ व्यस्क तो हुआ रस्क,
शिक्षा का बोध हुआ सुबोध हुआ,
संसाधन ना साधन कमी रही असाधारण,
साया भी उठा पिता का कारण बना अकारण,
कहाँ गए वो सपने सुहाने,
जिनको बुना था मैने ख्यालों मे।
अब बालक बना पालक परिवार का,
ना साथ किसी अपने साथी या रिश्तेदार का,
सब मतलब कि शिक्षा है यारी और रिश्तेदारी,
सब खुले  खजाने मेहनत के है मुहाने,
कहाँ गए वो सपने सुहाने,
जिनको बुना था मैने ख्यालों मे।
अब योगदान हुआ जब जवान हुआ,
सेना कि ईकाई में अपना भी अंशदान हुआ,
अंश के प्रतिमान से नये संबंधों का निर्माण हुआ,
संबंध बनें मंगल के लगा जीवन सुधरेगा,
संबंध थे विकारित खो गये सपने सुहाने,
कहाँ गए वो सपने सुहाने,
जिनको बुना था मैने ख्यालों मे।
परिवार के पोषण के लिया जीता हूँ,
दुनिया को देख व्यथित रहता हूँ,
किसी को अपना पाता हूँ ना किसी से कहता हूँ,
दोराहे पे खड़ा हूँ जिसकी कोई मंजिल है ना मुहाने,
कहाँ गए वो सपने सुहाने,
जिनको बुना था मैने ख्यालों मे।

फरियाद विरही की ०३ सितम्बर २०१४

ऐ मेरे हमसफर तू लोट के आजा।
तुझ बिन सब सूना- सूना लगता है।।
घर का आँगन, खेत खलियारा,
कल तक था जो मुझको प्यारा,
सब बेगाना लगता है,
ऐ मेरे हमसफर तू लोट के आजा।
कल तक हरी-भरी थी मेरे जीवन कि बगिया,
आज वीरान है जीवन की नगरिया,
कैसे सहूँ ये अकेलापन,
ऐ मेरे हमसफर तू लोट के आजा।
ऋतुओं के मेले भी मुझको अब खलते है,
दिन के उजाले अमावस की रात लगते है,
अब मान भी जाओ,
ऐ मेरे हमसफर तू लोट के आजा।
अगर तुम ना आये तो मै जी ना पाऊँगा,
कैसे कहूँ कि तुम बिन मै रह ना पाऊँगा,
एक बार खता तो बता जा,
ऐ मेरे हमसफर तू लोट के आजा।
अब साँस अटकी है कोई तुम मे,
अब अन्तिम बेला है जीवन की,
मुक्ति में तो साथ निभा जा,
ऐ मेरे हमसफर तू लोट के आजा।